अब भी ना जागे तो तबाही यकीनी है (NRC, CAB)

अब भी ना जागे तो तबाही यकीनी है (NRC, CAB)

✍️ निसार मिस्बाही

1920 की दहाई में तहरीके "खिलाफत" चलाई गई तो "खिलाफत कमेटी" के कुछ लीडरों के जरिए निहत्थे मुसलमानों को जिहाद या वतन छोड़ने पर उकसाया गया. हथियार उठाने में पूरी कौम की तबाही और खुदकुशी थी इसलिए "हिजरत" यानी तर्क
ए वतन, (मुल्क छोड़ने) पर ज़ोर दिया गया, और लाखों मुसलमानाें ने हिजरत के नाम पर
अफगानिस्तान भेज कर तबाह व बर्बाद कर दिए गए.
इसी दौरान "तहरीके तरके
मवालात" (नान को-ऑपरेशन यानी विदेशी बहिष्कार का मामला उठाया गया जिसे
कांग्रेसी और गांधीवादी मुस्लिम लीडर शिप ने" तर्क ए
मवालात" का नाम दिया था) चलाई गई, और लाखों रोजगार पाए हुए मुसलमानों की नौकरियां छुड़वा दी गईं, और सरकारी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रहे लाखों मुस्लिम नौजवानों की शिक्षा बंद करा दी गई. !! 
इमाम अहमद रज़ा खान बरेलवी (रहमतुल्लाह अलैह) ने इन मुसलसल साजिशों से
तभी आगाह किया था. उस वक्त आपने एक बहुत अहम बात कही थी जिस की अहमियत आज भी बरक़रार है.
आप लिखते हैं:
"दुश्मन अपने दुश्मन के लिए तीन बातें चाहता है:
(1) यह कि उसकी मौत हो ताकि झगड़ा ही खत्म हो.
(2) यह ना हो तो उसकी जिला-वतनी, ताकि अपने पास ना रहे.
(3) यह भी न हो सके तो आखिरी दर्जा उसकी बे-परी यानी दूसरे दर्जे का शहरी बन कर रहे.
विरोधियों ने यह तीनों दर्जे हम पर तय कर दिए और हमारी आंखें नहीं खुलती, अच्छाई समझे जाते हैं. पहला शोशा जिहाद का
छोड़ा, इशारे हुए. इसका खुला नतीजा हिंदुस्तान से मुसलमानों का खात्मा था.
दूसरा, जब यह न बना, तो हिजरत का शोशा दिया कि किसी तरह मुसलमान इस मुल्क से
दफा हों, निकल जायें, और मुल्क हमारी कबड्डी खेलने को रह जाये.
ये मुसलमान अपनी जायदादें कौड़ियों के भाव हमें बेच दें, या यूं ही छोड़ कर भाग
जायें, हर हाल में सब कुछ हमारे हाथ आए,
उनकी मस्जिदें, मज़ाराते औलिया हमारी पामाली को रह जाए. 
तीसरे, जब यह भी ना हुआ तो, "तर्क ए मवालात" का धोका दे कर बहिष्कार पर उभारा कि
(1)नौकरियां छोड़ दो. 
(2)किसी काउंसल, कमेटी में दाखिल ना हो.
(3)मालगुजारी टैक्स वगैरा कुछ ना दो. 
(4)उपाधियाँ वापस कर दो.
उपाधियां वापस करना तो सिर्फ इसलिए है कि दुनियावी नाम
को भी मुसलमानों की इज्ज़त ना रहे, और पहले तीन इसलिये कि सब कुछ, हर जगह, हर महकमा, विभाग में सिर्फ गैर मुस्लिम रह
जायें. जहां गैर मुस्लिमों का गलबा होता है वहां इस्लामी अधिकारों पर जो गुज़रती है वह सब पर जाहिर है. जब तन्हा वही रह जाएंगे
तो उस वक्त का अंदाजा लगाये कि क्या हो सकता है. मालगुजारी वगैरह न देने पर क्या अंग्रेज़ चुप बैठे रहेंगे? हरगिज़ नहीं! कुर्कीयां
होंगी, जायदादें नीलाम होंगी, और गैर मुस्लिम खरीदेंगे, नतीजा यह होगा कि मुसलमान सिर्फ कुली बन कर रह जायेंगे.
यह तीसरा दर्जा है.
देखा तुमने! कुराने करीम का फरमान के" वह तुम्हारी बुराई में कमी ना करेंगे, उनकी
दिली तमन्ना है कि तुम परेशानी में पडो." (फतावा रज़विय्या) 
यह बात सूरह अल इमरान की आयत नंबर 118 में मौजूद है.

मौजूदा दौर में साजिशें करने वाले जानते हैं कि ना मुसलमान हथियार रखते हैं, और ना कभी हथियार उठाने की बात सोचेंगे. यह भी
जानते हैं कि 20 करोड़ से ज्यादा लोग अपना मुल्क छोड़कर भी कहीं नहीं जाएंगे. और ना इतनी बड़ी तादाद को मुल्क से बाहर करना मुमकिन (संभव) है इसलिए यह तीसरा तरीका अपना रहे हैं. कि इन्हें(मुसलमानों) आहिस्ता-आहिस्ता बिल्कुल लंगड़ा-लूला करके दूसरे दर्जे का शहरी बना दिया जाए.
हमारी इजतिमाई बुज़दिली, कायरता और बेबसी उनका रास्ता आसान कर रही है. और हम पिछले 100 सालों से सब कुछ देख रहे हैं फिर भी गुजरे जमाने से सबक लेकर आगे के लिए कोई मंसूबा तैयार नहीं किया. 
यह वक्त है कि मुकम्मल बसीरत (दूर-अंदेशी) के साथ हम हुकूमत के इस संविधान-विरोधी और ज़ालिमाना क़दम के खिलाफ मुल्क के इंसाफ पसंद लोगों के साथ खड़े हो जाएं. 
गौ़र करें तो यह कानून "हुकूमत बनाम मुस्लिम" नहीं बल्कि "हुकूमत बनाम देश" और "हुकूमत बनाम संविधान" का मामला है. 


हम इसे हुकूमत का मुल्क-दुश्मनी पर आधारित क़दम मानते हुए इसे मुल्क-मुखालिफ (देश एवं संविधान-विराेधी) साबित भी करें. 
जो लोग इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद कर रहे हैं या इस कानून को वापस लेने की मांग या बहिष्कार का ऐलान कर रहे हैं, अगर हम कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम उनका साथ तो दे ही सकते हैं. 
याद रखें कि जो लोग यह समझ रहे हैं कि हम कागज़ात दुरुस्त करवा कर अपनी नागरिकता, हिन्दुस्तानी होना साबित कर लेंगे, या अपने हक़ बचा लेंगे, वो लोग अभी तक बहुत बड़ी गलतफहमी में जी रहे हैं.
कागज़ात यकीनन दुरुस्त होना चाहिए मगर यह भी सच है कि कागज़ात की दुरुस्तगी इन मसलों का हल, और तमाम मुसीबतों का खात्मा नहीं है.

निसार मिस्बाही.
9/12/2019

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