मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
नसीब चमके हैं फर्शियों के, के अर्श के चाँद आ रहे हैं
झलक से जिन की फ़लक है रौशन वो शम्स तशरीफ़ ला रहे हैं
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
निसार तेरी चहल-पहल पे हज़ारों ईदें रबीउल-अव्वल
सिवाए इब्लिस के जहां में सभी तो ख़ुशियाँ मना रहे हैं
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
शबे-विलादत में सब मुसलमां न क्यूँ करें जान-ओ-माल क़ुरबां
अबू लहब जैसे सख़्त क़ाफ़िर ख़ुशी में जब फैज़ पा रहे हैं
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
ज़माने भर में ये क़ाइदा है कि जिस का खाना उसी का गाना
तो नेअमतें जिन की खा रहे हैं उन्हीं के हम गीत गा रहे हैं
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
मैं तेरे सदक़े ज़मीन-ए-तयबा ! फ़िदा न हो तुझ पे क्यूँ ज़माना
के जिन की खातिर बने ज़माने, वो तुझ में आराम पा रहे हैं
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
जो क़ब्र में उनको अपनी पाऊं, पकड़ के दामन मचल ही जाऊं
जो दिल में रह के छुपे थे मुझ से वो आज जल्वा दिखा रहे हैं
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
मरहबा या मुस्तफा, मरहबा या मुस्तफा
नातख्वां:
मीलाद रज़ा क़ादरी
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